आज कल के समय में मनुष्य अपनी ही बनायीं दुनिया में मस्त रहता है सभी सुख और दुःख की अनुभूति होते हुए भी वह अपने ही मन की करता है| कुछ भी हो चाहे कितनी भी बड़ी बात हो वह बड़ी जल्दी भूल जाता है जैसे की कुछ हुआ ही न हो मनुष्य की इसी विषम परिस्थिति में जीने को त्रिशंकु स्वर्ग का नाम दिया गया है|
शास्त्रों के अनुसार इसका निर्माण एक मनुष्य की अनुचित इच्छा को पूरा करने के लिए किया गया था| आज हम जानेंगे महर्षि विश्वामित्र से जुडी एक ऐसी कथा के बारे में जिसने कलयुग के मनुष्यों को त्रिशंकु स्वर्ग जो की एक भ्रम है में जीने को मजबूर कर दिया|
बहुत समय पहले की बात है जब महाराजा कौशिक जिनकी एक गलती की वजह से महर्षि वशिष्ठ के हाथों उनके एक पुत्र को छोड़ कर सभी का विनाश हो गया था| तब उनसे बदला लेने की इच्छा से उन्होंने शिव जी का तप किया और उनसे वरदान प्राप्त कर के फिर से महर्षि वशिष्ठ से युद्ध किया परन्तु दुबारा से उन्हें मुंह की खानी पड़ी|
इससे दुखी हो कर उन्होंने फिर से भोले नाथ की शरण में गुहार लगायी इसबार उन्होंने बड़ा ही कठिन तप किया और अन्न जल त्याग कर सिर्फ फल फूल पर गुजारा करने लगे उनकी इस तपस्या से प्रसन्न हो कर शिव जी ने उन्हें ब्रम्ह ज्ञान प्रदान किया और उन्हें महर्षि विश्वामित्र की उपाधि भी वहीँ से मिली| परन्तु अभी भी वह महर्षि वशिष्ठ को अपना शत्रु ही मानते थे|
बहुत समय पहले सत्यव्रत नामक एक बड़ा ही धार्मिक एक दयालु राजा हुआ करता था उसने अपने राज्यकाल में बहुत से यज्ञ अनुष्ठान कराये वह अपनी प्रजा की देखभाल बड़े अच्छे तरीके से करता था| उसने अपने जीवन से बड़े पुण्य का काम किया वह सदा ही लाचारों की मदद करता था वृद्धावस्था में आने पर उसने अपने पुत्र हरिश्चंद्र को गद्दी सौंप दी और प्रजा को अपने बच्चे की तरह रखने की सलाह देकर चल पड़ा|
वह जीते जी स्वर्ग जाना चाहता था इसी लालसा को मन में ले कर वह महर्षि वशिष्ठ के पास पहुंचा| जब वशिष्ठ मुनि ने उसके आने का प्रयोजन जाना तो उन्होंने सीधे शब्दों में मना कर दिया की कोई भी प्राणी सशरीर स्वर्ग नहीं जा सकता|
यह सुनकर राजा विचलित हो उठा और उनके पुत्रों के पास अपनी इच्छा ले कर पहुंचा जब उन्हें यह पता चला की उनके पिता के मना करने के बाद भी राजा ने अपना हठ नहीं छोड़ा है तब उन्होंने उसे चांडाल बनने का श्राप दे दिया| वह उनके पास से सीधा महर्षि विश्वामित्र के पास पहुंचा और उनसे अपनी इच्छा बताई साथ ही यह भी कहा की वशिष्ठ मुनि ने कहा है की कोई भी उसे सशरीर स्वर्ग नहीं भेज सकता|
यह सुन कर महर्षि विश्वमित्र को अपना बदला लेने की सूझी और उन्होंने अपने तपोबल से उसे सशरीर स्वर्ग के द्वार तक पहुंचा दिया तब देवराज इंद्र ने अपने वज्र के प्रहार से उसे नीचे गिराने की कोशिश की परन्तु ऋषि के तपोबल ने उसे बीच में ही रोके रखा| तब देवराज ने उनसे प्रकृति के नियम ना तोड़ने की विनती की तब उन्होंने सत्यव्रत के लिए एक अलग स्वर्ग का निर्माण कर दिया जो की त्रिशंकु स्वर्ग के नाम से जाना गया|