शास्त्रों में परिजात वृक्ष को स्वर्ग का पेड़ कहा गया है| परिजात वृक्ष को हमारे शास्त्रों में सर्वोत्तम स्थान प्राप्त है| परिजात वृक्ष के फूलों को लक्ष्मी तथा भगवान शिव की पूजा में प्रयोग किया जाता है| आयुर्वेद में परिजात वृक्ष को हारसिंगार कहा जाता है| आयुर्वेद में इसे औषधि के रूप में देखा जाता है| कहते हैं की इस वृक्ष के नीचे बैठने से पल भर में थकान गायब हो जाती है|
हरिवंश पुराण के अनुसार परिजात वृक्ष की उत्पत्ति समुद्र मंथन के दौरान हुई थी| इस वृक्ष की उत्पत्ति के बाद देवराज इंद्र इसे अपने साथ स्वर्गलोक ले गए थे| परिजात वृक्ष को छूने का अधिकार केवल उर्वशी नाम की अप्सरा को प्राप्त था| इसे छूने से उर्वशी की सारी थकान दूर हो जाती थी| परिजात वृक्ष पर केवल पुष्प खिलते हैं और यह पुष्प रात में खिलते हैं| प्रातः होने पर सभी फूल मुरझा जाते हैं|
परिजात वृक्ष के पुष्पों का प्रयोग मूलतः लक्ष्मी जी के पूजन में किया जाता है| परंतु मात्र उन्हीं फूलों को उपयोग किया जाता है जो स्वयं टूटकर गिरे हों| क्योंकि शास्त्रों के अनुसार पारिजात वृक्ष के फूल तोड़ना वर्जित है| धरती पर पारिजात ही केवल ऐसा वृक्ष है जिस पर बीज नहीं लगते व इसकी कलम बोने पर दूसरा वृक्ष नहीं लगता|
स्वर्ग का पेड़ अर्थात परिजात वृक्ष के स्वर्ग लोक से पृथ्वी पर आने के पीछे एक पौराणिक कथा है| जो इस प्रकार है :-
हरिवंश पुराण की एक कथा के अनुसार एक बार नारद जी श्री कृष्ण से मिलने पृथ्वी पर आये| नारद जी श्री कृष्ण को भेंट करने के लिए अपने साथ परिजात के फूल भी लाये थे| जब नारद जी ने वह फूल श्री कृष्ण को भेंट किये तो श्री कृष्ण ने वही फूल साथ बैठी अपनी पत्नी रुक्मणी को दे दिए| जब सत्यभामा को यह पता चला तो वह श्री कृष्ण से नाराज हो गयी|
श्री कृष्ण के समझाने पर भी वह नहीं समझी और अपनी वाटिका के लिए परिजात वृक्ष लाने का हठ करने लगी| अंत में श्री कृष्ण को सत्यभामा की बात माननी पड़ी और उन्होंने अपने एक दूत को स्वर्गलोक में परिजात वृक्ष लाने के लिए भेजा| परन्तु इंद्र ने वृक्ष देने से मना कर दिया और दूत को खाली हाथ ही आना पड़ा| जब श्री कृष्ण को इस बात का पता चला तो वे रोष से भर गए और उन्होंने इंद्र पर आक्रमण कर दिया|
श्री कृष्ण ने युद्ध में इंद्र को परास्त करने के बाद परिजात वृक्ष को जीत लिया| इंद्र ने क्रोध में आकर श्राप दिया कि अब से इस परिजात वृक्ष पर कभी फल नहीं लगेंगे| इसके बाद श्री कृष्ण ने यह वृक्ष सत्यभामा की वाटिका में रोपित कर दिया| परन्तु उन्होंने सत्यभामा को सबक सिखाने के बारे में सोचा| श्री कृष्ण ने अपनी लीला से कुछ ऐसा किया की रात्री में पारिजात पर फूल तो उगते थे| परंतु वे उनकी प्रिय पत्नी रुक्मणी ( जो लक्ष्मी जी का ही अवतार थी) की वाटिका में ही गिरते थे| अतः आज भी जब इस वृक्ष के पुष्प झड़ते भी हैं तो पेड़ से काफी दूर जाकर गिरते हैं|
एक अन्य कथा के अनुसार जब पांडव अज्ञातवास भोग रहे थे| तब वह उत्तरप्रदेश के बाराबंकी जिला के गांव किंटूर में पहुंचे| जहां उन्होंने एक शिव मंदिर की स्थापना की ताकि उनकी माता अपनी इच्छानुसार पूजा अर्चना कर सकें| श्रीकृष्ण के आदेश पर कुंति हेतु पाण्डव सत्यभामा की वाटिका से परिजात वृक्ष को ले आए थे क्योंकि इस वृक्ष के पुष्पों से माता कुंति शिव पूजन करती थीं| इस तरह से स्वर्गलोक से आया वृक्ष किंटूर गांव का हिस्सा बन गया|