रावण वध कर, अयोध्या लौटने पर हम भगवान श्री राम के स्वागत में हर साल दीवाली का त्यौहार हर्षोउल्लास के साथ मनाते है। जबकि इसी उलट आज हम मुकाम हासिल करने के लिए एक ऐसी अंधी दौड़ में शामिल है जहां हम श्री राम जी की सीखाई हुई सीखें भूल चुके है।
जैसा कि हम सभी जानते हैं की रामायण वाल्मीकि जी ने लिखी है और उसके बाद गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस की रचना की, इनमे भगवन श्री राम के जन्म से लेकर राम-विवाह तक के बहुत से घटनाक्रम आते हैं।
ये घटनाक्रम सुनने में जितने मर्मस्पर्शी और मनोहर लगते हैं उससे भी ज्यादा प्रभावित होती हैं इन कथाओं से मिलने वाली प्रेरणा। तो आइए आज एक बार फिर से रामकथा से मिलने वाली प्रेरणा को जीवन में आत्मसात कर आगे बढ़ने की कोशिश करते है।
भागो नहीं, जागों
आज हर कोई भौतिकवाद की ओर दौड़ रहा है, सभी को यह अच्छे से अच्छा मुकाम पाने की चिंता सता रही है। लेकिन भौतिकता की इसी दौड़ में हम कहीं न कहीं अभी भी नींद में ही है। क्योंकि रामकथा के अनुरूप भागो नहीं जागों। असल में एक मुकाम पाने के लिए अंधी दौड़ लगाना जागना नहीं है।
वरन जागने का अर्थ तो है कि, अपने संग दूसरों के बारें में भी सोचें, एक योगी के तरह काम करें, यहां योगी का पर्याय उन लोगों से है, जो भक्त को भगवान से मिला दें, बिछड़े को परिवार से मिला दें और दुखी इंसान को सुखी बनाने का प्रयास करें । तभी को तुलसीदास जी ने कहां है कि
”एहिं जग जामिनि जागहिं जोगी। परमारथी प्रपंच बियोगी॥
जानिअ तबहिं जीव जग जागा। जब सब बिषय बिलास बिरागा॥”
भावार्थ
इस जगत् रूपी रात्रि में योगी लोग जागते हैं, जो परमार्थी हैं और प्रपंच (मायिक जगत) से छूटे हुए हैं। जगत् में जीव को जागा हुआ तभी जानना चाहिए, जब सम्पूर्ण भोग-विलासों से वैराग्य हो जाए॥2॥
अपने आनंद में जिए
एक दूसरे की होड़ में हम अपने आसपास के लोगों की सुख में सुखी नहीं और दुख में भी चैन नहीं। क्योंकि आजकल जीनें का अर्थ तुलनात्मकता मात्र ही रह गया है। जबकि कोशिश होनी चाहिए कि हम अपने आनंद में ही जीए। लोग, किसी के सुखी होने पर चिंतित है कि वह इतना सुखी क्यों है, हम क्यों नहीं हैं, हमारे प्रयासों में क्या कमी रह गई है। वहीं दूसरी ओर किसी दुखी व्यक्ति के दुख को कम करने के बजाए हम सोचते कि इसे कैसे और परेशान किया जाए।
लोगों का स्वभाव है कि आप सुखी क्यों है, वह अपने दुख से दुखी नहीं है, वह इसलिए परेशान कि आप सुखी क्यों है। इसलिए आज के इस तुलनात्मक व्यवहार को देखते हुए ही तुलसीदास की कहीं एक बात बिलकुल सटिक बैठती है कि सबको सब बात बताया नही जाता, सबके सामने रोया नहीं जाता लोग नमक लिए फिरते है, हर जख्म सबको दिखाया नहीं जाता।
अच्छा साथ ही, सबसे बड़ा सुख
जीवन में दुख और सुख तो बहुत है, लेकिन रामकथा के अनुरूप इस जग में गरीबी से बड़ा कोई दुख नहीं और अच्छा साथ मिलने से बड़ा कोई सुख नहीं। हालांकि कि दोनों ही परिस्थितियों का पूरा होना लगभग असंभव है। क्योंकि गरीबी ऐसी परिस्थिति है कि वह इंसान को बहुत हद तक तोड़ने की कोशिश करती है, जबकि वहीं इसी परिस्थिति में किसी का अच्छा साथ मिल जाए तो हम आसानी से दरिद्रता से पार पा सकते है। रामचरित मानस में भी तो यहीं कहा गया है कि
”नहिं दरिद्र सम दुख जग माहीं। संत मिलन सम सुख जग नाहीं॥
पर उपकार बचन मन काया। संत सहज सुभाउ खगराया॥”
भावार्थ:- जगत् में दरिद्रता के समान दुःख नहीं है तथा संतों के मिलने के समान जगत् में सुख नहीं है। और हे पक्षीराज! मन, वचन और शरीर से परोपकार करना, यह संतों का सहज स्वभाव है॥
रामदास बनों
सत्य को जीवन में उतारें, बाबा तुलसी जी ने कहा है मानस में कहा है कि ‘उमा कहऊँ मैं अनुभव अपना, सत हरि भजन जगत सब सपना’शिव जी पारर्वती जी से कहते है कि जीवन में सब झूठा है, सत्य केवल भगवान का भजन है। सती पार्वती जी बनी और जब सतसंग किया तो कल्याण हो गया। गरूड़ को मोह हुआ तो काकभुशुण्डि महाराज के आश्रम में रामकथा सुनी तभी तो कल्याण हुआ।
इसलिए कोशिश करें कि मन को ज्यादा से ज्यादा से अच्छे कामों में के साथ भगवान के स्मरण में लीन करें, ताकि किसी तरह का कोई गम छू भी न पाए। रामचरितमानस में कहा गया है कि कोई तन दुखी कोई मन दुखी , कोई धन बिन रहत उदास, थोड़े थोड़े सभी दुखी, सुखी राम के दास। अर्थात् खुश तो वही है तो भगवान पर भरोसा रखे और नित्य अपना अच्छा काम जारी रखें।