विश्वामित्र कुश राजा के वंशज होने की वजह से कौशिक कहे जाते थे, वो बड़े प्रतापी राजा थे|एक बार महर्षि वशिष्ठ के आश्रम में कामधेनु गाय के देख कर लालायित हो गए और उस समय के नियम के अनुसार कामधेनु को रत्न बता कर राजा की संपत्ति होने का दावा किया| कामधेनु महर्षि वशिष्ठ के जीवन भर की तपस्या का फल थी और वह से जाना नहीं चाहती थी| तब कामधेनु और महर्षि वशिष्ठ ने विशाल सेना का निर्माण किया और महाराजा कौशिक को पराजित कर दिया|
इससे आहत हो कर कौशिक ने शिव आराधना शुरू की शिव जी ने वरदान मांगने को कहा तो कौशिक ने सारे अश्त्र सश्त्र मांग लिए और दुबारा से महर्षि वशिष्ठ को युद्ध के लिए ललकारा ऋषि ने अपने दंड से उनके सहारे अश्त्र सश्त्र नष्ट कर दिए और उनके क्षत्रिय धर्म से श्रेष्ट तो ब्राह्मणत्व है धिक्कार है ऐसे क्षत्रिय धर्म पर|
इसपर कौशिक ने ब्रम्हा की तपस्या शुरू की हज़ार वर्षों की तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रम्हा जी ने कहा की राजन अब तो आप राजर्षि बन गए इस पर कौशिक ने कोई जवाब नहीं दिया और अपनी तपस्या में लीन रहे अगले हजार वर्ष के तप से प्रसन्न होकर ब्रम्हा ने कहा की अब आब महर्षि बन चुके हो| इसपर भी कौशिक संतुष्ट नहीं हुए क्रोध के मारे राजा त्रिसंकू के लिए अलग ब्रह्माण्ड बना दिया आखिर में देवताओं के विनती करने पर रुके परन्तु क्रोध अभी भी शांत नहीं हुआ था तो महर्षि ब्रम्हा जी की नगरी पुष्कर चले आये|
पुष्कर आकर उन्होंने दुबारा से कठिन तपस्या प्रारम्भ की उनकी तपस्या से देवराज इंद्र भयभीत हो गए और मेनका को उनकी तपस्या भंग करने को भेजा| मेनका इसमें सफल भी रही और दोनों पति पत्नी की तरह रहे और शकुंतला नामक पुत्रीं के पिता भी बने| उसके बाद ग्लानिभाव से भरे हुए हिमालय की ओर प्रस्थान किया और वहां पहुंचकर उन्होंने भूखे प्यासे रह कर 1000 वर्षों तपस्या की और तपस्या पूर्ण होने पर इंद्र ने ब्राह्मण भेस में आकर 1000 वर्षों के भूखे विश्वामित्र से भोजन मांग लिया इसपर जानते हुए की वो ब्राह्मण नहीं इंद्र है उन्होंने क्रोध नहीं किया परन्तु जब उसके बाद रम्भा आई तब तो उसे दस हजार सालो तक पत्थर बनने का श्राप दे दिया|
इतना होने पर उन्होंने दृढनिश्चय कर किया और तपस्या प्रारम्भ की 1000 वर्ष के बाद उनके सर से धुंआ निकलना शुरू हो गया ये देख कर इंद्र डर गए और ब्रह्मा जी से उनकी तपस्या रुकवाने की प्रार्थना की इसपर ब्रह्मा जी ने उन्हें ब्रह्मऋषि कह कर पुकारा लेकिन विश्वामित्र संतुष्ठ न हुए उन्होंने कहा की वशिष्ठ ऋषि मुझे ब्रह्मऋषि माने तोह ही मैं तप करना छोडूगा| तब वशिष्ठ आये और उन्होंने उन्हें ब्रह्मऋषि कह के बुलाया| तब जाकर उन्होंने तप समाप्त किया साथ ही दोनों की शत्रुता मित्रता में बदल गयी| ज्ञात हो की दोनों ने प्रभु श्री राम को शिक्षा दीक्षा दी थी|