नारद मुनि ब्रह्मा जी के 7 मानस पुत्रों में से एक हैं। वे भगवान विष्णु जी के भक्त थे। नारद जी ने कठिन तपस्या से ब्रह्मऋषि पद प्राप्त किया था। समय समय पर देवता ही नही बल्कि दानव भी उनसे परामर्श लेते थे।
नारद जी को बाल ब्रह्मचारी माना जाता है। परन्तु रामायण में एक ऐसी कथा का उल्लेख है जो बताता है कि एक बार नारद जी के मन में भी विवाह करने की प्रबल इच्छा जाग उठी। अगर मन में किसी वस्तु को पाने की बहुत इच्छा हो जाये तो वह आत्मा में बस जाती है और अगर वह इच्छा पूरी न हो पाए तो उस इच्छा को पूरा कने के लिए एक और जन्म लेना पड़ता है। नारद जी को भी अपनी इसी इच्छा के कारण धरती पर जन्म लेना पड़ा।
एक बार एक अनुपम सुंदरी को देख कर नारद जी का मन डगमगा गया तथा उनके मन में उस सुंदरी से विवाह करने की तीव्र इच्छा जाग उठी। भगवान विष्णु ने नारद जी को समझाया और नारद जी ने उनके कहे अनुसार विवाह की इच्छा त्याग दी। परन्तु वह उस इच्छा को केवल ऊपरी तौर पर त्याग सके, आंतरिक इच्छा को वह मिटा ना सके। अपनी इच्छा को पूरा करने के लिए नारद जी को मनुष्य रूप में जन्म लेना पड़ा।
इस जन्म में इनका नाम ‘संत श्री सुरसुरानंद’ था। कहा जाता है कि इनके शुभ संस्कारों के समय एक व्यक्ति आता था। जो खुद को इनका मामा और अपना नाम नारायण बताता था। यह व्यक्ति उत्सव समाप्त होने के बाद कहां चला जाता था, किसी को पता नहीं चलता था।
इसी व्यक्ति ने सुरसुरानंद जी को काशी जाकर श्री रामानंदाचार्य से शिक्षा ग्रहण करने की आज्ञा दी थी। संत कबीर, रैदास, धन्ना, नाभादास भी श्री रामानंदाचार्य के शिष्यों में शामिल थे। सुरसुरानंद जी श्री रामानंदाचार्य के पास पहुँच कर उन्हें बताया कि उनके नारायण मामा ने उन्हें यहां शिक्षा ग्रहण करने के लिए भेजा है। यह बात सुन कर श्री रामानंदाचार्य बहुत प्रसन्न हुए तथा उन्होंने सुरसुरानंद जी को अपना शिष्य स्वीकार कर लिया।
एक दिन सत्संग के समय शंख की ध्वनि गूंजी तो सुरसुरानंद जी बेहोश हो गये। जब वे बेहोश थे उन्हें सुनाई दिया कि मनुष्य रूप में तुम्हारा जन्म इसलिए हुआ है क्योंकि नारद रूप में तुम्हारी विवाह करने की बहुत प्रबल इच्छा थी। इस जन्म में तुम्हारी यह इच्छा पूरी हो जाएगी। बेहोशी के समय सुरसुरानंद जी को यह भी ज्ञात हुआ कि मामा रूप में स्वयं भगवान विष्णु इनकी सहायता करने के लिए आते हैं।
सुरसुरानंद जी का विवाह सुरसुरी देवी से हुआ। यह विवाह श्री रामानंदाचार्य ने करवाया। देवी सुरसुरी श्री रामानंदाचार्य की ही एक शिष्या थी। इस तरह धरती पर जन्म लेकर नारद जी की विवाह की इच्छा पूरी हुई। सुरसुरानंद जी ने अपने जीवनकाल में 500 ध्रुपद बंदिशों की रचना की थी जो आज भी रामानंदी ध्रुपद नाम से प्रचिलित हैं।