माना जाता है कि नौ दिनों की पूजा के बाद दसमी तिथि अर्थात दशहरे के दिन मां दुर्गा पृथ्वी से अपने लोक वापस जाती हैं| इसलिए दशहरे के दिन माँ की प्रतिमा के साथ – साथ अन्य देवी-देवताओं की प्रतिमा को जल में वसर्जित कर दिया जाता है| पहले देवी – देवताओं की प्रतिमा की पूजा की जाती है और पूजा करने के बाद उनकी प्रतिमा को जल में विसर्जित करने का विधान है| देवी – देवताओं की प्रतिमा को जल में विसर्जित करने के पीछे कुछ मान्यताएं हैं जो सदियों से चली आ रही हैं| आइए जानते हैं कि वे मान्यताएं क्या हैं|
हिन्दू धर्म में जल को बहुत पवित्र माना जाता है| यह पंचतत्वों में से एक है| किसी भी पूजा पाठ में जल हाथ में लेकर ही शुद्धि का मंत्र पढ़ा जाता है और इसे अपने शरीर और पूजन साम्रगी पर छिड़का जाता है| जल की पवित्रता के कारण ही देवी – देवताओं की प्रतिमा को जल में विसर्जित किया जाता है|
शास्त्रों में कहा गया है कि जल ब्रह्म का ही स्वरूप है| जब सृष्टि का निर्माण नहीं हुआ था तब यहां केवल जल ही जल था और माना जाता है कि सृष्टि के अंत में केवल जल ही जल होगा| इसलिए कहा जा सकता है कि जल ही आरंभ, मध्य और अंत है| जल में त्रिदेवों का वास माना जाता है| इसलिए देव कार्य में जल का प्रयोग किया जाता है|
जल को बुद्धि और ज्ञान का प्रतीक माना जाता है| वरुण देव जल के स्वामी हैं और विष्णु जी के अंश हैं| पुराणों के अनुसार जल से ही सभी देवी – देवताओं तथा सृष्टि का निर्माण हुआ है| इसलिए आदि अनंत भगवान विष्णु को देवी – देवताओं की मूर्तियां समर्पित कर दी जाती हैं| कहते हैं कि जल ही सृष्टि के अंत में सबकुछ अपने में समेट लेगा|
मान्यता है कि जल में देवी – देवताओं की प्रतिमाओं का विसर्जन करने से उनका अंश मूर्ति से निकलकर वापस अपने लोक चला जाता है और परम ब्रह्म में लीन हो जाता है| इसी कारण से मूर्तियों को जल में विसर्जित किया जाता है|
शास्त्रों के अनुसार देवी – देवताओं की मूर्तियों को जलाना नहीं चाहिए| क्योंकि इससे उनका अपमान होता है| यदि हम मूर्तियों को भूमि में दबाएं तो उन्हें खोदकर निकालने का डर रहता है| भूमि में खेती या दूसरे कार्य करने से देवी – देवताओं की मूर्तियों को चोट लग सकती है| ऐसा करने से भी देवी – देवता अपमानित होते हैं| जल में मूर्तियों का विसर्जन करने से वह जल में घुल जाती हैं जिससे देवी – देवताओं के ब्रह्मलीन होने की अनुभूति होती है|