बात उस समय की है महाराजा बलि नामक एक प्रतापी राजा हुआ करते थे| वो तीनों लोकों के अधिपति थे क्योंकि उन्हें दैत्य गुरु शुक्राचार्य से आशीर्वाद प्राप्त था उनके शासन काल में दैत्य बड़े बलशाली और निर्भीक हो गए थे| प्रतिदिन दैत्यों के अत्याचार में वृद्धि होती जा रही थी और देवता मात्र मूक दर्शक बने सब कुछ देखने को मजबूर थे क्योंकि देवताओं के राजा इंद्र दुर्वाशा ऋषि के श्राप की वजह से दुर्बल और शक्तिविहीन हो गए थे|
दैत्यों के बढ़ते अत्याचार से दुखी होकर सभी देवताओं ने आपस में निश्चय किया की क्यों न भगवान् विष्णु से इसका उपाए पूछा जाए| सारे देवगन भगवान् विष्णु की शरण में पहुँच गए और उनसे दैत्यों के बढ़ते अत्याचार के बारे में बताया और उनसे मुक्ति का तरीका पूछा| इस पर भगवान् विष्णु ने इंद्र से कहा की तुम महाराज बलि के पास जाओ और उन्हें समुद्र मंथन के लिए राजी करो|
उस समुद्र मंथन से तुम्हे अमृत की प्राप्ति होगी जिसका पान करने से तुम अपनी सारी खोयी हुई शक्तियां वापस पा सकोगे| ये सुनकर इंद्र ने कहा प्रभु आप मुझे मेरे दुश्मनों से मित्रता करने को कह रहें हैं| तब भगवान् विष्णु ने कहा की देवराज कभी कभी शत्रु से मित्रता करना लाभदायक होता है और अगर इस मित्रता से तुम्हे अमृत कलश की प्राप्ति होती है तो तुम्हें ये मित्रता जरुर करनी चाहिए|
भगवान् विष्णु की बात सुनकर भारी मन से देवराज महाराजा बलि के पास पहुंचे और उन्हें समुद्र मंथन से प्राप्त होने वाले रत्नों का लालच देकर राजी कर लिया| भगवान् विष्णु ने स्वयं कच्छप अवतार लिया और मंदराचल पर्वत को समुद्र में अपनी पीठ पर रख कर स्वयं आधार बने और मंदराचल पर्वत को मथनी की तरह इस्तेमाल करने को कहा| साथ ही वासुकी नाग को गहरी नींद में सुला कर देवताओं को वासुकी का इस्तेमाल रस्सी की तरह करने का आदेश दिया| देवताओं ने वासुकी नाग के फन वाला भाग पकड़ लिया ये देख कर दैत्यों ने सोचा की देवता उन्हें अपने से हिन् समझ रहे हैं|
दैत्यों ने झगड़ना शुरू कर दिया की फन वाले भाग की तरफ से वही वासुकी को पकड़ेंगे इसपर भगवान् विष्णु के आदेशानुसार देवताओं ने वासुकी के पूँछ वाले हिस्से को पकड़ लिया| उसके बाद समुद्र मंथन शुरू हुआ काफी देर के बाद समुद्र में बड़ी तेज हलचल हुई और एक पात्र प्रकट हुआ|
उस पात्र के प्रकट होते ही देवताओं और दानवों को बड़ी तेज जलन महसूस हुई| उस पात्र में हलाहल विश था जो की बड़ा ही जहरीला था उसके प्रभाव से देवताओं की हालत खराब होने लगी तब उन्होने शिवजी का ध्यान किया| उनकी प्रार्थना सुन कर शिव जी आये और सारा हलाहल पि गए परन्तु उन्होंने हलाहल विष को अपने गले में रख लिया जिसकी वजह से उनका नाम नीलकंठ भी पड़ा| उस विष की कुछ बूँदें धरती पर भी गिरीं जिससे बिच्छु जैसे जहरीले जीवों की उत्पत्ति हुई|