महाभारत काल से आज तक सबसे अच्छा और सफल धनुर्धारी अर्जुन को माना जाता है परन्तु जहाँ बात गुरु-भक्ति की आती है तो एकलव्य का नाम सबसे पहले आता है| आज हम बात करेंगे उस सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारी की जिसने स्वयं भगवान कृष्ण से युद्ध कर वीरगति प्राप्त की थी|
निषाद जाति में जन्में एकलव्य का नाम ‘अभिद्युम्न’ रखा गया था| इनके पिता निषादराज हिरण्यधुन और माता सुलेखा थीं| एकलव्य ने गुरुकुल में शस्त्र-विद्या सीखी लेकिन वह धनुर्विद्या की उच्च शिक्षा लेने गुरु द्रोण के पास पहुंचे| पर द्रोण भीष्मपितामह को दिए वचन अनुसार केवल कौरव-वंश को ही शिक्षित कर सकते थे|
द्रोणाचार्य के इंकार करने के बाद एकलव्य ने उनका सेवक बनने की इच्छा जताई| गुरु द्रोण यह मना ना कर पाए और एकलव्य के लिए एक झोंपड़ी का प्रबंध किया| एकलव्य का एक ही काम था कि जब सभी धनुर्विद्या का अभ्यास कर के चले जाएं तब सभी बाणों को इकठ्ठा कर के तर्कश में रखें|
जब द्रोणाचार्य अपने शिष्यों को बाण चलाना सिखाते थे, तब एकलव्य छिप कर उन्हें देखता था और उनकी हर बात को ध्यान से सुनता था| फिर उनकी दी हुई सीख का अभ्यास वह अपने खाली समय में करता था| एक बार दुर्योधन ने एकलव्य को अभ्यास करते हुए देखा और द्रोणाचार्य को सब बताया| द्रोणाचार्य ने क्रोधित होकर उसे वापिस लौट जाने को कहा|
एकलव्य धनुर्विद्या सीखने के लिए दृढ़ निश्चय कर के अपने घर से निकला था| इस कारण वह महल वापिस नहीं लौटा और वहीं जंगल में अपने गुरु द्रोण की मूर्ति बनाई और अभ्यास करने लगा|
एक दिन द्रोणाचार्य अपने शिष्यों के साथ वन की ओर निकले, उनके साथ एक कुत्ता भी था जो रास्ता भटक गया और एकलव्य जहाँ अभ्यास कर रहा था वहां पहुंचा| एकलव्य कुत्ते के भोंकने से अपने अभ्यास में ध्यान नहीं लगा पा रहे थे तभी उन्होंने अपना बाण कुत्ते की तरफ ताना| बाण को इस तरह चलाया कि कुत्ते को कुछ भी नहीं हुआ और बाण कुत्ते के मुँह में अटक गया|
जब द्रोणाचार्य ने कुत्ते को देखा तो वह हैरान हो गए और उनके मन में जिज्ञासा उतपन्न हुई कि यह बाण किसने चलाया है| फिर द्रोण उस योद्धा की तलाश करने लगे, तभी उन्हें एकलव्य अभ्यास करते हुए दिखा| द्रोणाचार्य ने एकलव्य से उसके गुरु के बारे में पूछा तब एकलव्य ने उन्हें उनकी मूर्ति दिखाई|
यह देख द्रोण चिंतित हो उठे कि एक तरफ भीष्मपितामह को दिया हुआ वचन टूट गया और दूसरी तरफ अर्जुन को दिया हुआ वचन भी| भीष्मपितामह को दिए वचन के अनुसार द्रोण सिर्फ कौरव वंश को ही शस्त्र-विद्या दे पाएंगे और एकलव्य कौरव नहीं था| अर्जुन को दिए वचन के अनुसार अर्जुन ही सबसे बड़ा धनुर्धारी होगा और एकलव्य अर्जुन से भी आगे था|
यह सभी सोच कर द्रोणाचार्य ने एकलव्य कहा की अगर तुम मुझे अपना गुरु मानते हो तो मुझे दक्षिणा दोगे? तो एकलव्य ने दक्षिणा देने के लिए हामी भरी| द्रोणाचार्य ने बड़ी चालाकी से एकलव्य का दाहिने हाथ का अंगूठा मांग लिया और गुरुभक्त एकलव्य ने बिना किसी हिचकिचाहट के अपना अंगूठा दे दिया|
इन सब के बाद भी एकलव्य निराश नहीं हुआ और उसने अपनी उँगलियों से बाण चलने का अभ्यास शुरू किया| देखते ही देखते वह इस विद्या में माहिर हो गया| अपने राज्य वापिस आ कर उन्होंने कई राज्यों से युद्ध किया और जीत हासिल की| अब जंग छिड़ी यादव सेना के साथ| अकेले एकलव्य ने ही कई यादव योद्धाओं को युद्ध क्षेत्र में मार गिराया|
श्री कृष्ण उसे उँगलियों से बाण चलाते और युद्ध जीतते देख अचम्भित हो गए| श्री कृष्ण यह सोचने लगे कि अगर महाभारत के युद्ध में एकलव्य कौरवों के पक्ष में हो जाए तो पांडव नहीं जीत पाएंगे| यही सोच कर इस युद्ध में श्री कृष्ण के द्वारा एकलव्य ने वीरगति प्राप्त की|
एकलव्य की जीवनगाथा हमारे लिए प्रेरणा का साधन है| उनका जीवन हमें अच्छे शिष्य होने से लेकर गुरु के प्रति अपना समर्पण सिखाता है| एकलव्य के उँगलियों से बाण चलाने का तरीका आज भी प्रचलित है|