भगवान शिव को शशिधर भी कहा जाता है। शशि अर्थात चन्द्रमा और धर अर्थात धारण करने वाला।
भगवान शिव के चन्द्रमा को धारण करने के पीछे एक पौराणिक कथा जुड़ी हुई है।
शिव पुराण के अनुसार जब समुद्र मंथन के दौरान अमृत के साथ समुद्र में से विष भी निकला। तब पूरी सृष्टि को इस विष के प्रभाव से बचाने के लिए भगवान शिव ने यह जहरीला विष पी लिया। विष पीने के बाद शिवजी का शरीर विष के प्रभाव से अत्याधिक गर्म होने लगा। चन्द्रमा शीतल होता है। शिवजी के शरीर को शीतलता मिले इस वजह से उन्होंने चंद्र को धारण किया। तभी से चन्द्रमा शिव के मस्तक पर विराजमान हैं।
दूसरी पौराणिक कथा के अनुसार चन्द्र का विवाह प्रजापति दक्ष की 27 नक्षत्र कन्याओं के साथ संपन्न हुआ। परन्तु चन्द्र का स्नेह रोहिणी से अधिक था। इसकी शिकायत अन्य कन्याओं ने दक्ष से कर दी। दक्ष ने क्रोध में आकर चन्द्रमा को क्षय होने का श्राप दे दिया। इस श्राप के कारण चन्द्र क्षय रोग से ग्रसित होने लगे और उनकी कलाएं क्षीण होना प्रारंभ हो गईं।
इस श्राप से मुक्ति पाने के लिए चन्द्रमा ने भगवान शिव की तपस्या की। चन्द्रमा की तपस्या से प्रसन्न होकर शिव जी ने चन्द्रमा के प्राण बचाए और उन्हें अपने मस्तक पर स्थान दिया। कहा जाता है कि जब चंद्र अंतिम सांसें गिन रहे थे। तब भगवान शिव ने प्रदोषकाल में चंद्र को पुनर्जीवन का वरदान देकर उन्हें अपने मस्तक पर धारण कर लिया अर्थात चंद्र मृत्युतुल्य होते हुए भी मृत्यु को प्राप्त नहीं हुए।
पुन: धीरे-धीरे चंद्र स्वस्थ होने लगे और पूर्णमासी पर पूर्ण चंद्र के रूप में प्रकट हुए। जहां चन्द्रमा ने तपस्या की थी वह स्थान सोमनाथ कहलाता है। मान्यता है कि दक्ष के श्राप से ही चन्द्रमा घटता बढ़ता रहता है।