एक बार गुरु द्रोणाचार्य ने दुर्योधन और युद्धिष्ठिर की परीक्षा लेने के बारे में सोचा। उन्होंने उन दोनों से राज्य का भ्रमण कर के आने को कहा। उन्होंने युद्धिष्ठिर से कहा कि जाओ और पता लगाकर आओ की राजधानी में दुर्जन पुरुष कितने हैं? दूसरी और उन्होंने दुर्योधन को भी आदेश दिया कि वह जानकारी लेकर आये कि राजधानी में सज्जन पुरुष कितने हैं?
गुरु द्रौणाचार्य के आदेश से दोनों राज्य में अपने अपने कार्य के लिए निकल गए। अपना कार्य पूर्ण करने के पश्चात वे दोनों गुरु द्रौणाचार्य के पास वापिस पहुंचे। गुरु द्रौणाचार्य ने उन दोनों से उनको सौंपे हुए कार्य के बारे में पूछा। युद्धिष्ठिर ने बताया कि उसे एक भी दुर्जन पुरुष नही मिला और दुर्योधन ने बताया कि उसे भी किसी सज्जन पुरुष के दर्शन नही हुए। द्रौणाचार्य दोनों की बात सुनकर मुस्कुराने लगे।
उन्होंने इस घटना की व्याख्या करते हुए बताया कि युद्धिष्ठिर को एक भी दुर्जन पुरुष नही मिला। क्योंकि वह स्वयं एक सज्जन पुरुष है तथा युद्धिष्ठिर को कोई भी सज्जन पुरुष नही मिला क्योंकि उसे सज्जनता में कोई दिलचिस्पी नही है। मुख्य बात यह है कि हम जो होते हैं उसी की तलाश करते हैं।
इस व्याख्या से हमें यह पता चलता है कि जो व्यक्ति स्वयं अच्छा है, वह दूसरों में भी अच्छाई ढूंढता है। परन्तु जो व्यक्ति बुरा है उसे हर व्यक्ति में केवल बुराई दिखाई देती है।
हम जो देखना चाहते हैं, हमे केवल वही दिखाई देता है। मान लीजिये कि एक बहुत सुन्दर जंगल है, उस जंगल में एक सौंदर्य प्रेमी, लकड़हारा तथा शिकारी जाएँ तो तीनो को वहां सब अलग अलग दिखेगा। जैसे कि सौंदर्य प्रेमी को जंगल की सुंदरता लुभाएगी और लकड़हारे को वहां केवल पेड़ों की लकड़ियां दिखेंगी तथा शिकारी को वहां बस शिकार के लिए जानवर दिखाई देंगे।