भगवान् विष्णु के निवास स्थान बैकुंठ धाम के द्वारपाल जय और विजय नामक दो सगे भाई थे| दोनों पूरी मुस्तैदी और इमानदारी से अपने कर्तव्य का निर्वाह कर रहे थे| एक दिनकी बात है जब भगवान् ब्रम्हा के मानस पुत्र ऋषि सनत और सनकादी भगवान विष्णु से मिलने बैकुंठ पहुंचे| जय विजय बैकुंठ के द्वार पर मुस्तैदी से पहरा दे रहे थे और नंग धडंग साधुओं को देख कर उन्हें हंसी आ गयी| दोनों ऋषियों ने जब उनसे भगवान् विष्णु से मिलवाने का आग्रह किया तो जय विजय ने उन्हें कहा की ऐसे नंग धडंग कहा चले जा रहे हो|
दोनों ऋषि बड़े ही शांत स्वभाव के थे अतः उन्होंने उनकी बातों का बुरा नहीं माना क्योंकि वो द्वारपाल थे और उनका कर्तव्य था की पूरी जांच पड़ताल करने के बाद ही किसी को भी अन्दर जाने की अनुमति प्रदान करें| साथ ही बैकुंठ जैसे वैभवशाली स्थान पर ऋषि मुनियों का कोई काम भी नहीं था| उन्होंने जय विजय से कहा हम सनत कुमार हैं और सदा ही इसी वेष भूषा में रहते हैं हम भगवान् विष्णु के दर्शन करना चाहते हैं अतः हमें अन्दर जाने दो| इस बात को सुनते ही द्वारपालों का गुस्सा चरम सीमा पर पहुँच गया और उन्हें दुत्कारते हुए वहां से चले जाने को कहा और उन्हें अपमानित भी किया|
अपने अपमान से आहात हो कर ऋषि कुमारों ने उन्हें श्राप दिया की देवता होते हुए भी तुमने दैत्यों जैसा व्यवहार किया है जिसकी वजह से तुम दैत्यों के रूप में जनम लोगे| हंगामा सुन कर भगवान् विष्णु द्वार पर पहुंचे और ऋषि कुमारों को आदर सहित अपने साथ बैकुंठ लोक के अन्दर ले गए| ऋषि कुमारों को वहां से विदा करने के बाद भगवान् ने जय विजय दो दुखी अवस्था में देखा तो उन्होंने कहा की तुमने ऋषि कुमारों का अनादर किया है इसके परिणाम स्वरुप तुम्हे राक्षस कुल में जनम लेना पड़ेगा| परन्तु क्यूंकि तुमने मेरे द्वारपाल के रूप में मेरी सेवा की है इसके फलस्वरूप तुम्हारा उद्धार मेरे द्वारा ही होगा|
जय विजय ने महर्षि कश्यप और द्विति के पुत्र के रूप में जन्म लिया द्विति दैत्यों की माता थी इसलिए उनके गर्भ से जन्म लेने की वजह से उनमे भी दैत्यों के लक्षण मौजूद थे| द्विति ने अपने दोनों पुत्रों का नाम हिरण्याक्ष और हिरन्यकश्यप रखा दोनों बड़े ही क्रूर और हिंसक थे| हिरण्याक्ष बड़ा की अधर्मी था उसने अपने राज्य में देवताओं की पूजा बंद करा दी और पृथ्वी को पाताल में ले गया ताकि कोई देवता वह तक न पहुँच सके|
सृष्टि के नियम भंग होने की वजह से सारे ब्रम्हाण्ड में उथल पुथल मच गयी देवता हाहाकार करते हुए भगवान् विष्णु के पास पहुंचे और उनसे सब कुछ सामान्य करने की प्रार्थना की| भगवान् विष्णु ने देखा तो उन्हें चारों ओर जल ही जल दिखाई दिया उन्होंने वाराह अवतार लिया और समुद्र में कूद पड़े उसके बाद उन्होंने पृथ्वी को अपने दांतों पर रखा और जल से बाहर आये| वाराह की भयंकर गर्जना सुन कर हिरण्याक्ष क्रोधित हो उठा और उन्हें मारने को दौड़ा परन्तु उसके सारे अस्त्र शस्त्र वाराह के शरीर से टकरा कर चूर हो जाते थे| अंत में वाराह अवतार ने हिरण्याक्ष को उपने दांतों से उठा कर आकाश में फेंक दिया जमीन पर गिरते ही उसे वाराह में भगवान् विष्णु के दर्शन हुए उसने भगवान् विष्णु से प्रार्थना किया की उसके भाई को भी मुक्ति दें| परन्तु भगवान् ने कहा की अभी उसका वक़्त नहीं आया है और सही समय आने पर मैं नरसिंह अवतार ले कर उसे भी मुक्ति प्रदान करूंगा|