नारद मुनि ब्रह्मदेव के सात मानस पुत्रों में से एक है जिन्हे ब्रह्मऋषि की उपाधि दी गयी है| नारद भगवान विष्णु के अनन्य भक्त कहलाते हैं| ब्रह्मऋषि होने के बावजूद ऐसा क्या हुआ कि नारद मुनि को स्वर्गलोक में आने नहीं दिया जा रहा था?
हम सभी ये जानते हैं कि नारद मुनि चंचल स्वभाव के थे| उनका ऐसे कही पर भी बार-बार बिना बुलाये आ जाना सभी देवों की परेशानी का कारण बन गया था| सभी देवों ने मिलकर एक उपाय निकाला कि सभी अपने द्वारपालों को आदेश दें कि नारद मुनि को स्वर्गलोक में प्रवेश ना करने दिया जाए| अतः कोई न कोई बहाना बना कर टाल दिया जाए|
अगले दिन नारद जी भगवान शिव से मिलने कैलाश पर्वत पहुंचे तब नंदी ने उन्हें रोका और कहा आप कहीं और जाकर अपनी वीणा बजाएँ क्योंकि भगवान शंकर ध्यान मुद्रा में लीन हैं| यह सुन कर नारद मुनि क्रोधित हो उठे और भगवन विष्णु से मिलने क्षीरसागर पहुंचे| वहां पक्षीराज गुरुड़ ने उन्हें अंदर प्रवेश नहीं करने दिया| ऐसे ही वे हर देवता के पास गए परन्तु किसी ने भी उन्हें स्वर्गलोक के अंदर आने की अनुमति नहीं दी|
नारद मुनि को समझ नहीं आ रहा था कि वे अपने अपमान का बदला कैसे लें| वह इधर उधर भ्रमण करते हुए काशी पहुंचे जहाँ उनका मिलाप एक प्रसिद्ध महात्मा से हुआ| नारद जी ने अपनी समस्या उनके सामने रखी| कुछ देर बाद संत बोले कि मैं तो खुद देवताओं का ध्यान करता हूँ, मैं आपकी मदद किस प्रकार कर सकता हूँ|
संत ने फिर कहा की उनके पास देवताओं के दिए हुए तीन अद्भुत पाषाण हैं, हर पाषाण से किसी भी तरह की मनोकामना पूरी हो सकती है| नारद जी ने तीनों पाषाण लिए और आगे बढ़ चले| चलते-चलते उनके मन में एक विचार आया कि इन पाषाणों के इस्तेमाल से देवताओं का ध्यान अपनी ओर बटोरा जा सकता है|
नारद जी एक नगर में पहुंचे जहाँ बहुत ज़ोर से रोने की आवाज़े आ रही थी| उन्हें पता चला कि वहां बड़े सेठ की मृत्यु हुई थी, तब उन्होंने अपने एक पाषाण का इस्तेमाल किया और बड़े सेठ को जीवित कर दिया| थोड़ा आगे जा कर उन्हें एक भिखारी दिखा जो कोढ़ के रोग से परेशान था, नारद जी ने दूसरे पाषाण से उसका रोग दूर कर उसे लखपति बना दिया और अंत में तीसरे पाषाण से उन्होंने कामना की कि फिर से तीनों पाषाण उन्हें वापिस मिल जाएं|
इसके बाद वह ऐसे ही उल्टी-सीधी इच्छाएं कर सृष्टि के चक्र में बाधाएं उत्पन्न करने लगे| इस से सभी देवता परेशान हो गए| उनको एहसास हुआ की नारद जी का स्वर्गलोग में प्रवेश न करना सही निर्णय नहीं था| नारद जी चंचल स्वभाव के तो थे परन्तु उनके द्वारा हर लोक की सूचनाएं मिल जाया करती थी|
तब सभी देवताओं ने निश्चित किया कि वरुण देव एवं वायु देव नारद जी को लेकर आएँगे| उन्होंने पृथ्वी लोक पर नारद जी की खोज शुरू की और उन्हें गंगा के किनारे पाया| नदी के तट पर ही नारद जी की वीणा रखी थी जो वायु देव के बहने से बज उठी| वीणा के बजने पर नारद जी का ध्यान वीणा की तरफ गया तो वहाँ वरुण देव और वायु देव को पाया|
फिर नारद जी ने उनसे आने का कारण जाना| वरुण देव ने उनसे कहा कि सभी देवता अपने व्यव्हार से शर्मिंदा हैं और आपको वापिस स्वर्गलोक बुला रहे हैं| नारद जी ने भी अपने क्रोध को भूलकर देवलोक की तरफ प्रस्थान किया और तीनों पाषाणों को गंगा में बहा दिया|